छत्तीसगढ़ के कला रूप
छत्तीसगढ़ शिल्पकलाओं के मामले में किसी भी दूसरीक्षेत्रीय संस्कृति से पीछे नहीं है। यहां विभिन्न जाति के लोग जहा अपने पारंपरिक जातिगत शिल्प में पारंगत है वहीं छत्तीसगढ़ के जनजातीयो में भी समृद्ध शिल्प परम्परा विद्यमान है।छत्तीसगढ़ के विभिन्न शिल्पो की ख्याति महानगरो में व्याप्त है।
छत्तीसगढ़ के प्रमुख शिल्प रुपो में निम्नलिखित है –
1. मिट्टी शिल्प
छत्तीसगढ़ में मिट्टी शिल्प की अत्यंत समृद्ध और जीवन परम्परा है। यहां परम्परागत रूप से मिट्टी के खिलौने और मूर्तियां बनाने का कार्य कुम्हार करते हैं। लोक और आदिवासी दैनिक जीवन में उपयोग में आने वाली वस्तुओं के साथ कुम्हार परम्परागत कलात्मक रूपोकारो का भी निर्माण करते हैं। रायगढ़, सरगुजा, राजनांदगांव आदि के मिट्टी शिल्प अपनी अपनी निजी विशेषताओं के कारण महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। राज्य में बस्तर का मिट्टी शिल्प अपनी विशेष पहचान रखता है। बस्तर में अत्यन्त सुन्दर कलात्मक और बारीक अलंकरण कार्य मिट्टी की विभिन्न आकृतियों में होता है। इनका दैनिक जीवन में तथा कलात्मक, और बारीक अलंकरण कार्य मिट्टी कि विभिन्न आकृतियों में होता है। इनका दैनिक जीवन में तथा कलात्मक, अलंकरनात्मक एवं अनुष्ठानिक महत्व है।
2. काष्ठ शिल्प
राज्य में काष्ठ शिल्प की परंपरा काफी प्राचीन और समृद्ध है। राज्य के आदिम समूहों में सभी काष्ठ में विभिन्न रूपाकार उकेरने की प्रवृत्ति सहज रूप से देखी जाती हैं। बस्तर के मुरिया जनजाति के युवागृह घोटुल के खंभे, मूर्तियां, देवी- झूले, कलात्मक मृतक स्तम्भ, तीर- धनुष, कुल्हाड़ी आदि पर सुंदर बेल बुटो के साथ पशु पक्षीयो की आकृति अंकित की जाती है। कोरकू जनजाति के मृतक स्तम्भ और सरगुजा कि अनपढ़ मूर्तियां भी काष्ठ कला के उत्कृष्ठ नमूने है। छत्तीसगढ़ के काष्ठ कला के प्रमुख उदाहरणों में गाड़ी के पहिए, देवी – देवताओं की मूर्तियां, घरों के दरवाजे, मुखौटे, तीर- धनुष, घोटुल गुड़ी, ख्मभ, मृतक स्तम्भ,विवाह स्तम्भ आदि शामिल हैं। रायगढ़ का काष्ठ शिल्प उत्तम कोटि का है।
3. कंघी कला
आदिवासीयो में अनेक प्रकार की कंघियों का प्रचलन प्राचीन काल से हो रहा है। आदिवासी समाज में कंघियों का इतना अधिक महत्व है कि वे कंघियां अलंकरण, गोदना एवं भित्ति चित्रों में प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुकी है। बस्तर में कंघी प्रेम विशेष उल्लेखनीय थे। राज्य में कंघी बनाने का श्रेय बंजारा जाति को दिया जाता है। बस्तर की कंघियों में सुंदर अलंकरणत्मक अंकन होता है। ये रतनों की जड़ाई, मीनाकारी आ से अलंकृत कि जाती है।
4. बांस शिल्प
बांस से बनी कलात्मक वस्तुये सौंदर्य परक और जीवनों पयोगी
होती है।इस कारण बांस शिल्प की महत्ता जीवन में और अधिक बढ़ जाती है। राज्य में विशेष रूप से बस्तर जिले में जनजातीय लोग अपने दैनिक जीवन में उपयोग आने वाले बांस की बनी कलात्मक चीजों का स्वयं अपने हाथों से निर्माण करते हैं। कमार जनजाति बांस के कार्यों के लिए विशेष प्रसिद्ध है।बांस शिल्प का प्रचलन सम्पूर्ण अंचल में है। बस्तर, रायगढ़, सरगुजा में बांस शिल्प के अनेक परंपरागत कलाकार हैं।
5. पत्ता शिल्प
पत्ता शिल्प के कलाकार मूलतः झाडू बनाने वाले होते हैं।झाडू
के अलावा पत्ता शिल्प का नमूना छीन्द के पत्तो से कलात्मक खिलौने, चटाई, आसन, दूल्हा- दुल्हन के मोढ़ आदि में देखने को मिलता है।
6. तीर धनुष कला
वन्य जातियों में तीर धनुष रखने की परंपरा रही है।तीर धनुष बांस, मोर पंख, लकड़ी, लोहे, रस्सी आदि से बनाए जाते हैं। तीर धनुष मूलतः शिकार करने के लिए बनाए जाते है। पहाड़ी कोरबा, कमार आदि जनजाति तीर धनुष चलाने में कुशल होते हैं। बस्तर के आदिवासी एक विशेष प्रकार की लकड़ी से कलात्मक तीर धनुष बनाने में माहिर हैं। धनुष पर लोहे की किसी गरम सलाख या कुल्हाड़ी से जलाकर कलात्मक अलंकरण बनाने की परिपाटी बस्तर के मुरिया आदिवासी में देखने को मिलता है।
7. घरवा कला
बस्तर में निवास करने वाली घरवा जाति घरवा कला में प्रसिद्ध है। इस शिल्प कि तकनीके प्राचीन और परम्परागत हैं। इस कारण इसका महत्व और अधिक बढ़ जाता है। पीतल, कांसा और मोम से बने घरवा शिल्प बस्तर के आदिवासीयो के देवलोक से जुड़े हुए हैं।घरवा शिल्प के अनेक शिल्पकारों को राज्य स्तरीय और राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त करने का गौरव प्राप्त हुआ है।
8. लौह शिल्प
बस्तर में मुरिया- मड़िया आदिवासियों के विभिन्न अनुष्ठानों में लोहे से बने स्त्मभो के साथ देवी देवताओं, नाग, पशु पक्षीयो आदि की मूर्तियां अर्पित करने की परम्परा है। बस्तर में लौह शिल्प का कार्य लोहार जाति के लोग करते हैं।लौह शिल्प का व्यवसाय लोहार जाति का पैतृक व्यवसाय है।लौह शिल्प के क्षेत्र में बस्तर के लोहार अत्यंत श्रेष्ठ शिल्पियों में गिने जाते हैं। बस्तर के कई लौह शिल्पियों को राज्य स्तरीय तथा राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त करने का गौरव प्राप्त है।
9. प्रस्तर शिल्प
बस्तर के आदिवासी क्षेत्रो के अलावा राज्य के विभिन्न क्षेत्रो में प्रस्तर शिल्प निर्माण की परंपरा देखने को मिलती है।
10. मुखौटा कला
मुखौटा मुख का प्रतिरूप होता है। मुखौटा एक कला है। छत्तीसगढ़ में जनजातिय मुखौटो की परंपरा विविधता पूर्ण और समृद्ध है।छत्तीसगढ़ के आदिवासियों में नृत्य, नाटय, उत्सव आदि अवसरों पर मुखौटा धारण करने की परंपरा रही है। सरगुजा के पंडो, कंवर और उरांव फ़सल कटाई के बाद घिरा उत्सव का आयोजन करते है और कठमुहा खिसरा लगाकर नृत्य करते हैं। भतरा जनजाति के भतरा नाट में भी विभिन्न मुखौटो का प्रचलन है। बस्तर के मुरिया जनजाति के मुखौटे आनुष्ठानिक नृत्यों के लिए बनाए जाते है। घेरला उत्सव के नृत्य अवसर पर मुखिया जिसे नकटा कहा जाता है मुखौटा पहनता है।
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