छत्तीसगढ़ के लोक नाट्य
1. नाचा
यह छत्तीसगढ़ का प्रमुख लोक नाट्य है। बस्तर के अतिरिक्त छत्तीसगढ़ के अधिकांश भागों में नाचा का प्रचलन है। नाचा का उदगम गम्मत से माना जाता है जो मराठा सैनिकों के मनोरंजन का साधन था। गम्मत में स्त्रियों का अभिनय करने वाला नाच्या कहलाता है। इसी से इस छत्तीसगढ़ी लोक नाट्य रूप का नाम नाचा पड़ा। नाचा अपने आप में एक सम्पूर्ण नाट्य विद्या है।प्रहसन एवं व्यंग्य इसके मुख्य स्वर है। नाचा के आयोजन के लिए किसी विशेष तिथि की आवश्यकता नहीं नही होती है। विवाह, मंडाई, गणेश उत्सव आदि किसी भी अवसर पर नाचा का आयोजन किया जा सकता है। नाचा का मंच प्राय: सामान्य होता है और उसकी प्रस्तुति बहुत कम साधनों से सम्पन्न की जा सकती है। हजारों लोगों का खुले आसमान के नीचे रात भर मनोरंजन होता है। इसे केवल पुरुष कलाकार हो करते हैं। स्त्री पात्रों का अभिनय भी पुरुष ही करते हैं।नाचा के नाट्य और संभावनाओं का अद्भुत उपयोग हबीब तनवीर ने किया है।
2. भतरा नाट
यह बस्तर के भतरा जनजाति के लोगों द्वारा किया जाने वाला प्रमुख नृत्य नाट्य है। इसका मंचन उत्सवों जात्रा या मंडई के अवसर पर होता है। इस नाट्य पर उड़िया प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। कहा जाता है कि बस्तर के राजा ने जगन्नाथपुरी कि यात्रा की वापसी के बाद वहां के नृत्य नाट्य संकीर्तन को अपनी प्रजा के बीच प्रचलित कराया।भतरा नाटय के मुखौटे व वेश भूषा जगन्नाथ पुरी से मंगाए जाते हैं। नाटय पोथी भी उड़िया में उपलब्ध है। आमतौर पर एक नाट्य का प्रदर्शन रात्रि में होता है।भतरा नाटके लिए मंच भूमि से एक फिट ऊंचा बनाया जाता है। यह चारों ओर से खुला रहता है। ये हास्य प्रहसन नाट्य को उबालू होने से बचाते है। अधिकांश नाट्य रामायण, महाभारत एवं अन्य पौराणिक कथाओं पर आधारित होते है। सभी नाटो में भागवत धर्म की अच्छाईयो एवं उच्च नैतिक गुणों का संदेश लोक जीवन मेंपहुंचाया जाता है। अभिमन्यु वध, जरासंध वध, लक्ष्मण शक्ति नाट, दर्योधन वध, हिरायन कश्यप वध, आदि का मंचन अधिक होता है। इंदिरा गांधी की नृशंस हत्या पर आधारित नाट ने सम्पूर्ण बस्तर में धूम मचा दी थी। इस नाटय का मंचन सम्पूर्ण गांव में उत्सव जैसा वातावरण पैदा कर देता है। बस्तर के लोगों में इसके प्रति जबरदस्त उत्साह देखा जाता है।
3. पंडवानी
महाकाव्य महाभारत के पांडवो की कथा का छत्तीसगढ़ी लोकरूप ही पंडवानी है। पंडवानी में किस्सागोई, संगीत एवं अभिनय सभी कि अद्भुत समग्रता है।इस लोक नाटय के लिए किसी विशेष अवसर ऋतु या अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं होती है।इस लोक नाट्य का मुल आधार परधान और देवारों की पंडवानी गायकी महाभारत की कथा और सबल सिंह चौहान की दोहा चौपाई है। पंडवानी में परिष्कृत साहित्यिक दखल न होकर लोकवाणी होती है। महाभारत की कथा पर आधारित पंडवानी में महाभारत की तरह ही साहस, जोश, शौर्य, धर्म उपदेश अध्यात्म और श्रृंगार आदि सभी भाव समाहित होता है। पंडवानी में एक मुख्य गायक होता है और एक हुंकारी भरने वाला रागी होता है। इसके अलावा वाध पर संगत करने वाले लोग होते है जो आमतौर पर तबला, ढोलक, हारमोनियम और मंजीरा से संगत करते हैं। मुख्य गायक स्वयं तम्बूरा एवं करताल बजाता है। गायो की वाधो के साथ शारीरिक गतिशीलता मंच में महाभारत की कथा का पूरा आंतरिक तनाव उपस्थित कर देती है। पंडवानी की दो शाखाएं हैं वेदमती एवं कपलिक। वेदमती शाखा में महाभारत के अनुसार शास्त्र सम्मत गायकी की जाती है। यह गायन के साथ नृत्य नाटय है। इसमें गायक कथा वाचन के साथ साथ हाथ, आंख, चेहरे की
भंगिमाओं द्वारा अद्वितीय नाटकीयता का सृजन करते है। पंडवानी की दूसरी शाखा कपलिक में केवल कथा गायन होता है। पंडवानी के प्रसिद्ध कलाकारो में तीजन बाई एव झाडूराम देवांगन प्रमुख हैं, जिन्होंने इस लोक कला को विश्व भर में ख्याति दिलाई है। दानी परधान, गोगिया परधान, राम जी, देवार, पूनाराम निषाद आदि इसके अन्य उल्लेखनीय कलाकार हैं। ऋतु वर्मा इसकी नयी स्थापित कलाकार है।
4. रहस
यह छत्तीसगढ़ का प्रमुख लोकनाट्य है। यह एक आनुष्ठानिक नाट्य विद्या है जिसे प्रमुखत: ग्रामीण अंचलों में श्रद्धा, भक्ति और मनोरंजन के सम्मिलित भाव से आयोजित से आयोजित किया जाता है । यह केवल मनोरंजन नहीं बल्कि आध्यात्म की कलात्मक अभिव्यक्ति है। रहस का शाब्दिक अर्थ रास या रास लीला है। इसमें संगीत नृत्य प्रधान कृष्ण के विविध लीला अभिनय किए जाते हैं। इसे एक ही पखवाड़े में सम्पन्न किया जाता है। श्रीमद् भागवत के आधार पर श्री रेबाराम द्वारा रहस की पांडुलिपियां बनाई गई थी और इसी के आधार पर रहस का प्रदर्शन होता है। रहस का आयोजन एक यज्ञ कि भांति होता है। यह एक बड़े समारोह की तरह आयोजित होता है। इसके आयोजन की तिथि कई माह पूर्व ही निश्चित हो जाती है। सम्पूर्ण गांव में इसके लिए ब्रजमंडल मानकर इसकी नाटय सज्जा की जाती है। चितेरा जाति के कलाकारों द्वारा बनाई गई मिट्टी की विशाल मूर्तियां गांव के विभिन्न स्थानों पर स्थापित की जाती है, जिनमें कंस, भीम, कृष्ण, भीम आदि देवी देवताओं की मूर्ति होती है। ये मूर्तियां रहस सम्पन्न होने के बाद भी उन्हीं स्थानों पर छोड़ दिए जाते हैं। रहस कर आयोजन काफी खर्चीला होता है।
5. माओपाटा
यह बस्तर की मुड़िया जनजाति में प्रचलित एक प्रसिद्ध लोक नाट्य है। यह लोक नाटय शिकार कथा पर आधारित होता है। इसमें आखेट पर जाने से लेकर शिकार करके शिकारियों के सकुशल वापस आने के विद्वान इस कथानक को आदिम प्रभाव के रूप में देखते हैं। आखेटक प्राचीनकाल में सकुशल वापस लौटने पर देवी देवताओं को कृतिज्ञता ज्ञापित करते थे और उल्लास पूर्वक विभिन्न नृत्य, गीत, आवाज आदि से अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते थे। इन्हीं अभिव्यक्तियों ने कलांतर में नृत्य गीत नाटय का रूप ग्रहण कर लिया।माओपाटा इसी की सजीव अभिव्यक्ति है।माओपाटा बाइसन के सामूहिक आखेट पर आधारित नृत्य नाटिका है जिसमे गौर का शिकार एवं उसमे आने वाली बाधाओं का मंचन किया जाता है। इसमें नाटकीय रूप से शिकारी के शिकार पर जाने, शिकारी के घायल होने उसे स्वस्थ करने हेतु धार्मिक अनुष्ठान करने और वापस शिकार पर जाने किलकारी लगा कर बाइसन को घेरने, धनुष बाण एवं कुल्हाड़ी से आक्रमण करने व मारने आदि का दृश्य प्रस्तुत किया जाता है।
6. राई
लोक नृत्यों में बुंदेलखंड कि पहचान राई से स्थापित है। तीव्र शारीरिक चपलता उद्दाम आवेग जीवन्तता और लोक संगीत के अद्भुत साम्य के कारण लोक नृत्यों में राई कि एक विशेष पहचान है। राई लोक नृत्य बुंदेली लोक जीवन में पुरी तरह रच बस गया है। वस्तुत: यह नृत्य बुंदेलखंड के जीवन चक्र का एक अटूट हिस्सा है। बुंदेलखंड का यह नृत्य किसी ऋतु विशेष या अनुष्ठान से बंधा हुआ नहीं है। इसे न ही मंचीय नृत्य के रूप में सीमित किया गया है। इसका आयोजन किसी भी शुभ अवसर पर ग्रामीण में बच्चों के जन्म, विवाह आदि अवसरों पर इच्छित कार्यों की पूर्ति होने या मनौती पुरी होने पर या केवल मनोरंजन के उद्देश्य से किसी भी ऋतु में किया जा सकता है। राई सुमरनी गीत से प्रारंभ होता है। जिसमे बुंदेलखंड के प्राय: सभी देवी देवताओ का स्मरण किया जाता है। राई नृत्य के केंद्र में एक नर्तकी होती है जिसे बेड़नी कहते है।उसे गति देने का कार्य एक मृदंग वादक करता है। राई के दौरान श्रृंगार परक लोकरंजन के साथ घटनाओं, स्थितियों पर त्वरित व्यंग्य एवं समाजिक विद्रूपताओं पर चोट की जाती है।
7. दहिकांदो
छत्तीसगढ़ के मैदानी क्षेत्र के आदिवासी कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर दहिकांदो नामक नृत्य नाट्य का प्रदर्शन करते हैं। यह करमा और रास का मिला जुला रूप है। इसमें कदमं या किसी वृक्ष के नीचे राधा कृष्ण की मूर्ति स्थापित कर इसके चारों ओर नृत्य करते हुए कृष्ण लीला का अभिनय होता है। कृष्ण के सखा मनसुखा का पात्र इसमें विदुषक का होता है और वही दही से भरा मटका फोड़ता है।
8. गम्मत
कुछ लोग रहस में प्रदर्शित होने वाले प्रहसन को गम्मत कहते हैं जबकि सामान्यतया गम्मत का आयोजन अलग से किया जाता है।गम्मत का मंच भी वर्गाकार बनता है एक किनारे वादक बैठकर साज बजाते हैं और नर्तक नृत्य नृत्य करते हैं। गम्मत में सामान्यत:कृष्ण की लीला का ही आख्यान होता है तथा बीच बीच में प्रहसन का आयोजन किया जाता है।गम्मत एक या अधिक दिनों तक आयोजित हो सकता है पर यह अनुष्ठान नहीं है और न ही इसके लिए मंच की कोई प्रामाणिक विधि है। किन्तु यह विशुद्ध रूप से भक्तिभाव से स्मप्रिक्त लोकरंजन की नाट्य विद्या है। कही कही नाचा को ही गम्मत कह दिया जाता है।
9. खम्ब स्वांग
खम्ब स्वांग कर अर्थ है खंबे के आस पास किया जाने वाला प्रहसन।खम्ब यानी मेघनाथ खम्ब।खम्ब स्वांग का आरंभ और अंत अनुष्ठान से होता है।खम्ब स्वांग संगीत, अभिनय और मंचीय दृष्टि से कोरकू आदिवासियों का सम्पूर्ण नाट्य है। किंवदंती हैं की रावण पुत्र मेघनाथ ने कोरकूओ को एकबार विपत्ति से बचाया था।उसी की स्मृति में यह आयोजन किया जाता है। प्रत्येक कोरकू गांव में एक मेघनाथ खम्ब होता है। क्वार की नवरात्रि से देव प्रबोधिनी एकादशी तक इसी खम्ब के आस पास कोरकू प्रत्येकरात नये नये स्वांग खेलते है।खम्ब स्वांग मात्र पारम्परिक शुद्ध मनोरंजन का साधन नहीं है। इसके साथ सामाजिक विसंगतियों पर चोट की जाती है। देहाती प्रतीकों को लेकर कोरकू आदिवासी अपने बीच कि मानवीय कमजोरियों को स्वांग के माध्यम से उजागर करते हैं। जीवन के छोटे- छोटे प्रसंग लेकर स्वांग का ताना बाना बुनने में भी कोरकू कलाकार सिद्घ हस्त होते हैं।स्वांग के केंद्र में एक विदुषक होता है जो गम्मत से मिलता जुलता है।
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🙏 जय जोहार जय छत्तीसगढ़ 🙏